शहरों की रेत में
अपने गावं के खेत ढूंढता हूँ,
खुली आँखें देख नहीं पाती
पर दिख जाता है जब भी आँखें मूंदता हूँ...
खेतों के इर्द-गिर्द की पगडंडियाँ
यहाँ के फूटपाथ पे महसूस नहीं होती,
अजीब बात है वहाँ लोग पगडंडियों पे चलतें है
और यहाँ आधी मुंबई फूटपाथ पे है सोती...
गाँव का छोटा सा देवी मंदिर
यहाँ के भव्य मंदिरों से बहुत छोटा लगता है,
पर भक्ति-भावना तो एक जैसा ही दोनों जगह जगता है....
गाँव के खेतों में हर मौसम की अलग फसल उपजती है,
और यहाँ हमें हर प्रोजेक्ट एक जैसी ही लगती है...:)
उमंगों भरा होता है गाँव का हर त्यौहार,
यहाँ तो बस छुट्टीयों के लिए होता है त्योहारों का इन्तेजार...
वहाँ की शादियों में महीनों खुशियाँ मनाई जाती है,
और यहाँ सिर्फ दो घंटे में शादियाँ निपट जाती है...
शहरों में रौनक तो है पर शान्ति नहीं,
और गाँव में रौनक भी है और शांति भी...!!
bahut sunder prastuti
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteघूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच ।
लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर की जाएगी!
सूचनार्थ!
बहुत ही बेहतरीन कविता है
ReplyDeleteशहरों की रेत में
ReplyDeleteअपने गावं के खेत ढूंढता हूँ,
खुली आँखें देख नहीं पाती
पर दिख जाता है जब भी आँखें मूंदता हूँ...
....बहुत ही सुन्दर
खूबसूरत। काव्य कौशल की झलक प्रभावशाली है
शहरों की रेत में
ReplyDeleteअपने गावं के खेत ढूंढता हूँ,
खुली आँखें देख नहीं पाती
पर दिख जाता है जब भी आँखें मूंदता हूँ...vaah bahut khoob
gaon aur shahar ki vibhinntayen bahut sundar likhi hain.
सार्थक रचना...
ReplyDeleteहार्दिक बधाई...